दुर्गा पूजा का इतिहास : दुर्गा पूजा की शुरुआत कैसे हुई?
दुर्गा पूजा: वो कहानी जो मुझे कभी बताई ही नहीं गई
आपको याद है, बचपन में त्योहार का मतलब क्या होता था? मेरे लिए तो त्योहार का मतलब था स्कूल की छुट्टियाँ, घर में बनती मिठाइयों की खुशबू, और नए कपड़ों की ज़िद। दुर्गा पूजा मेरे शहर का सबसे बड़ा त्योहार नहीं था, लेकिन पड़ोस में रहने वाली एक बंगाली आंटी के घर की चहल-पहल आज भी याद है। उन कुछ दिनों के लिए उनका घर जैसे एक जादुई दुनिया बन जाता था। ढाक की वो धुन... अरे यार, वो आवाज़ कानों में नहीं, सीधे दिल में बजती थी। और वो पंडाल में माँ दुर्गा की विशाल मूर्ति, उनकी आँखों में एक अजीब सी शक्ति और शांति का संगम। मैं घंटों बस उन्हें देखता रहता था।
मुझे लगता था कि ये बस एक धार्मिक त्योहार है। देवी ने राक्षस को मारा, अच्छाई की जीत हुई, और हम उसी का जश्न मना रहे हैं। सीधी, सरल और सुंदर कहानी। है न?
पर कुछ साल पहले, जब मैंने इस त्योहार के बारे में थोड़ा और जानना चाहा, तो मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। पता चला कि जिस कहानी को मैं भक्ति और आस्था की कहानी समझ रहा था, उसकी जड़ें एक राजनीतिक साज़िश, सत्ता के खेल और अंग्रेज़ों के सामने वफ़ादारी साबित करने की होड़ में छिपी थीं।
सच कहूँ? जब मैंने यह पहली बार पढ़ा, तो मुझे बहुत गुस्सा आया। एक पल को लगा कि क्या मेरा बचपन का वो सारा भोलापन, वो सारी आस्था एक झूठ थी? ये कुछ वैसा ही था जैसे आपको पता चले कि आपका पसंदीदा सुपरहीरो असल में विलेन के लिए काम करता था। दिल टूट जाता है, है न? पर फिर मैंने और गहराई में उतरना शुरू किया और जो कहानी सामने आई, वो किसी भी बॉलीवुड फिल्म से ज़्यादा रोमांचक, ज़्यादा परतदार और ज़्यादा मानवीय थी।
तो आज मैं आपको सिर्फ़ दुर्गा पूजा की कहानी नहीं सुनाने वाला। मैं आपको अपने उस सफ़र पर ले जा रहा हूँ, जिसमें मेरा भ्रम टूटा, मेरा नज़रिया बदला और आख़िर में इस त्योहार के लिए मेरी इज़्ज़त हज़ार गुना बढ़ गई। चलिए, शुरू से शुरू करते हैं।
कहानी का ओरिजिनल 'ब्लॉकबस्टर' वर्जन - जब देवताओं के भी हाथ-पाँव फूल गए
सबसे पहले उस कहानी पर चलते हैं जो हम सबने सुनी है, लेकिन शायद उसके पीछे का असली मतलब नहीं समझा। इसके लिए हमें लगभग 1500 साल पीछे जाना होगा, मार्कंडेय पुराण की दुनिया में।
सोचिए, एक ऐसा विलेन है, महिषासुर। उसे वरदान मिला है कि कोई भी पुरुष या देवता उसे मार नहीं सकता। ये तो वही बात हो गई कि आपके कंप्यूटर में एक ऐसा वायरस आ गया है जिसे आपका एंटी-वायरस पकड़ ही नहीं पा रहा। सिस्टम क्रैश होने वाला है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश... सबने कोशिश की, लेकिन सब फेल। स्वर्ग पर महिषासुर का कब्ज़ा हो चुका है और सारे देवता बेघर हो गए हैं।
जब सिस्टम के सारे पुराने तरीके फेल हो जाते हैं, तब क्या होता है? एक नया, क्रांतिकारी समाधान खोजना पड़ता है।
और यहीं एंट्री होती है देवी दुर्गा की। मुझे जो बात सबसे कमाल की लगती है, वो यह है कि दुर्गा पैदा नहीं हुईं, उन्हें बनाया गया था। सारे देवताओं ने अपनी-अपनी सबसे अच्छी शक्ति, अपना तेज, अपनी ऊर्जा एक जगह इकट्ठा की और उस महा-विस्फोट से एक नई शक्ति का जन्म हुआ। वो एक कॉस्मिक वेपन थीं, जिन्हें एक ऐसी समस्या को हल करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, जिसे कोई और हल नहीं कर पा रहा था।
लेकिन कहानी का हीरो उतना ही मज़बूत होता है, जितना मज़बूत उसका विलेन हो। महिषासुर सिर्फ़ एक भैंस वाला राक्षस नहीं था। पुराण उसे एक 'शेप-शिफ्टर' कहते हैं एक ऐसा दुश्मन जो लगातार अपना रूप बदलता है। वो कभी शेर बनता, कभी हाथी, कभी इंसान। वो आपको धोखा देता है, आपकी रणनीति के हिसाब से खुद को बदल लेता है।
अब सोचिए, ये कहानी सिर्फ़ एक कथा नहीं है। यह एक मैनुअल है। यह हमें सिखाती है कि जब आपका दुश्मन सीधा और सरल न हो, जब वो लगातार अपना चेहरा बदल रहा हो, तो उससे कैसे लड़ा जाता है। क्या आज हमारी ज़िंदगी में ऐसे 'शेप-शिफ्टर' दुश्मन नहीं हैं? कभी डिप्रेशन के रूप में, कभी नौकरी के स्ट्रेस के रूप में, कभी सोशल मीडिया पर फेक न्यूज़ के रूप में। ये वो दुश्मन हैं जो हर रोज़ एक नया मुखौटा पहनकर आते हैं। दुर्गा की कहानी हमें बताती है कि ऐसी चुनौतियों से लड़ने के लिए आपको भी अपनी सारी आंतरिक शक्तियों को एक साथ लाना पड़ता है।
कैलेंडर का सबसे बड़ा 'हैक' - त्योहार का समय कैसे बदला?
यहाँ तक तो सब ठीक था। लेकिन मेरे मन में एक सवाल हमेशा खटकता था। अगर देवी की पूजा का पारंपरिक समय वसंत (Spring) का मौसम था, जिसे 'वासंती पूजा' कहते हैं, तो हम इसे पतझड़ (Autumn) में क्यों मनाते हैं?
इस सवाल का जवाब मुझे किसी पुराने पुराण में नहीं, बल्कि 15वीं सदी में बंगाल में लिखी गई 'कृतिवासी रामायण' में मिला। और यार, ये कहानी इतनी खूबसूरत है कि इसने पूरे त्योहार का कैलेंडर ही हमेशा के लिए बदल दिया।
कहानी है 'अकाल बोधन' की, यानी 'असमय जागरण'।
जब राम, रावण से युद्ध कर रहे थे, तो वो जीत नहीं पा रहे थे। वजह? रावण खुद देवी का बहुत बड़ा भक्त था। उसे देवी का आशीर्वाद प्राप्त था। तब राम को सलाह दी गई कि अगर रावण को हराना है, तो उन्हें भी जीत के लिए देवी को जगाना होगा, उनकी पूजा करनी होगी। लेकिन एक समस्या थी यह पूजा का सही समय नहीं था। यह 'अकाल' था।
खैर, राम ने पूजा करने का फैसला किया। इस पूजा के लिए 108 नीले कमलों की ज़रूरत थी। हनुमान जी पूरी पृथ्वी छानकर 107 कमल तो ले आए, लेकिन 108वां कमल मिला ही नहीं। कुछ कहानियों में कहा जाता है कि देवी ने खुद उनकी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए एक कमल गायब कर दिया था।
अब पूजा अधूरी नहीं रह सकती थी। 107 कमल चढ़ चुके थे। 108वें की जगह खाली थी। तब राम ने क्या किया होगा?
उन्हें 'कमल नयन' कहा जाता है, यानी जिनकी आँखें कमल जैसी हैं। उन्होंने फैसला किया कि वो अपनी एक आँख 108वें कमल के रूप में देवी को चढ़ा देंगे। जैसे ही उन्होंने तीर से अपनी आँख निकालने की कोशिश की, देवी प्रकट हो गईं। उन्होंने राम का हाथ पकड़ा और कहा, "रुको। मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ।" और उन्हें विजय का वरदान दिया।
जब मैंने यह कहानी पहली बार पढ़ी, तो सच कहूँ, मेरी आँखों में पानी आ गया था। भक्ति का ऐसा स्तर, समर्पण का ऐसा रूप! यह कहानी बंगाल में इतनी लोकप्रिय हुई कि इसने पुरानी परंपरा को पीछे छोड़ दिया। लोगों ने राम की उस 'अकाल बोधन' वाली पूजा को अपना लिया और दुर्गा पूजा का समय हमेशा के लिए वसंत से पतझड़ में शिफ्ट हो गया। ये किसी कहानी की ताकत का सबसे बड़ा उदाहरण है। उसने एक पूरे त्योहार के कैलेंडर को 'हैक' कर लिया।
आपकी ज़िंदगी में ऐसा क्या है जिसके लिए आप अपनी सबसे कीमती चीज़ भी दाँव पर लगा सकते हैं? वो कोई इंसान हो सकता है, कोई सपना हो सकता है, या कोई सिद्धांत। कभी सोचा है इस बारे में?
जब पूजा 'भक्ति' नहीं, 'पॉलिटिक्स' बन गई
अब कहानी उस मोड़ पर आती है, जिसने मुझे सबसे ज़्यादा चौंकाया और परेशान किया था। साल था 1757। प्लासी की लड़ाई हो चुकी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल की नई किंग मेकर बन चुकी थी। और इस नई सत्ता के साथ, बंगाल में एक नए वर्ग का उदय हुआ ज़मींदार। ये वो लोग थे जिनकी दौलत, शोहरत और ताकत सीधे-सीधे अंग्रेज़ों से जुड़ी थी।
और इस कहानी का मेन कैरेक्टर है कोलकाता का राजा नवकृष्णदेव।
कहा जाता है कि उसने रॉबर्ट क्लाइव की जीत का जश्न मनाने के लिए कोलकाता में पहली बार भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन किया। ज़रा रुककर इस बात को समझिए। पूजा भगवान को खुश करने के लिए नहीं, बल्कि नए 'राजा' यानी रॉबर्ट क्लाइव को खुश करने के लिए हो रही थी। ये एक संदेश था "सर, हम आपके साथ हैं। हम आपके वफ़ादार हैं।"
उस दौर की पूजा में भक्ति कम और दिखावा ज़्यादा था। ये एक तरह की नेटवर्किंग पार्टी थी। पूजा की शान इस बात से तय होती थी कि उसमें कितने बड़े अंग्रेज़ अफ़सर आए हैं। उनके लिए नाच-गाने का इंतज़ाम होता था, उन्हें महंगे तोहफ़े दिए जाते थे। ये ज़मींदारों के लिए अपने नए आकाओं के सामने अपनी सामाजिक और राजनीतिक हैसियत को मज़बूत करने का एक हथियार था।
यह पढ़कर मुझे आज का ज़माना याद आ गया। कैसे बड़े-बड़े त्योहारों को कॉर्पोरेट स्पॉन्सर कर लेते हैं? कैसे धर्म और उत्सव भी कभी-कभी कॉमर्स और नेटवर्किंग का एक ज़रिया बन जाते हैं? शायद इंसानी फ़ितरत कभी नहीं बदलती। सत्ता चाहे मुग़लों की हो, अंग्रेज़ों की हो, या आज कॉर्पोरेट्स की उसके क़रीब रहने के तरीके हमेशा एक जैसे ही रहते हैं। है न?
आम आदमी की क्रांति - जब त्योहार हवेलियों से निकलकर सड़कों पर आया
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। क्योंकि सत्ता हमेशा एक जगह नहीं रहती। धीरे-धीरे, लोगों को यह एहसास होने लगा कि त्योहार किसी एक ज़मींदार की जागीर कैसे हो सकता है? माँ दुर्गा तो सबकी हैं।
इस बदलाव की शुरुआत हुई 1790 में, जब 12 दोस्तों ने मिलकर ज़मींदार के घर के बाहर अपनी अलग पूजा शुरू की। इसे 'बारो-यारी' (बारह दोस्तों की) पूजा कहा गया। यह त्योहार को लोकतांत्रिक बनाने की पहली कोशिश थी। ये कुछ वैसा ही था जैसे कुछ दोस्त मिलकर अपना एक छोटा-सा म्यूजिक बैंड बना लें क्योंकि वो बड़े कॉन्सर्ट का टिकट नहीं खरीद सकते।
लेकिन असली क्रांति तो 1910 में हुई, जब कोलकाता में 'सार्वजनीन पूजा' यानी 'सबके लिए पूजा' की शुरुआत हुई। यह वो पल था जब इस त्योहार को ज़मींदारों के चंगुल से निकालकर आम जनता को सौंप दिया गया। अब कोई भी चंदा देकर पूजा का हिस्सा बन सकता था। पंडाल अब किसी की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि पूरे मोहल्ले की साझी विरासत बन गए।
यह इस त्योहार के इतिहास का सबसे खूबसूरत मोड़ है। यह दिखाता है कि जब लोग एक साथ आते हैं, तो वो सबसे बड़ी ताकतों को भी चुनौती दे सकते हैं। क्या आपने कभी अपने मोहल्ले या अपनी सोसाइटी में ऐसा कोई काम किया है, जहाँ सबने मिलकर कुछ ऐसा खड़ा किया हो जो पहले किसी एक इंसान का था? वो जो एकजुटता की भावना होती है, उसकी ताक़त ही कुछ और है।
कहानी का क्लाइमेक्स - जब दुर्गा 'भारत माता' बन गईं
और अब आता है कहानी का वो हिस्सा, जिसे पढ़कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। यह वो समय था जब वही दुर्गा पूजा, जिसकी नींव अंग्रेज़ों को खुश करने के लिए रखी गई थी, उन्हीं अंग्रेज़ों को उखाड़ फेंकने का सबसे बड़ा हथियार बन गई।
साल 1926। जगह- कोलकाता में शिमला व्यायाम समिति का पूजा पंडाल।
यह सिर्फ़ एक पूजा नहीं थी, यह एक अखाड़ा था, एक क्रांति का केंद्र। यहाँ राष्ट्रवादी नेता अतिंद्रनाथ बसु ने दुर्गा की मूर्ति को सीधे-सीधे 'भारत माता' के रूप में दिखाया। माँ की मूर्ति के पीछे बंकिम चंद्र के 'वंदे मातरम' की पंक्तियाँ लिखी थीं। दुर्गा के दस हाथों में त्रिशूल और तलवार के साथ-साथ स्वदेशी आंदोलन के प्रतीक भी थे।
यह एक सीधा संदेश था। महिषासुर कोई और नहीं, बल्कि ब्रिटिश राज था। और उसे हराने वाली शक्ति कोई और नहीं, बल्कि एकजुट भारत की जनता थी।
सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानी इन पूजा पंडालों को अपनी रैलियों और भाषणों के लिए इस्तेमाल करने लगे। पंडालों में स्वदेशी सामानों के स्टॉल लगते थे और मार्शल आर्ट का प्रदर्शन होता था। यह अंग्रेज़ों की आर्थिक और शारीरिक सत्ता को सीधी चुनौती थी।
और अंग्रेज़ों को यह बात समझ में आ गई। उन्हें माँ दुर्गा की मूर्ति से डर नहीं था; उन्हें उस मूर्ति के पीछे छिपी 'भारत माता' की तस्वीर से डर था। उन्होंने 1932 से 1935 के बीच शिमला व्यायाम समिति की पूजा पर बैन लगा दिया।
ज़रा सोचिए, यह इस त्योहार के इतिहास की सबसे बड़ी विडंबना है! जिस त्योहार को उनके वफ़ादार ज़मींदारों ने शुरू किया था, वही त्योहार उनकी सत्ता के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन गया। ये तो वही बात हुई कि आप जिस पौधे को अपने बगीचे में लगाते हैं, वही एक दिन बढ़कर आपके घर की दीवारों को तोड़ दे।
सिर्फ़ आस्था नहीं, इसके पीछे विज्ञान भी है
जब मैं इस त्योहार के इतने सारे रूप देख चुका था पौराणिक, राजनीतिक, राष्ट्रवादी तो मुझे लगा कि अब और क्या बाकी होगा। लेकिन एक और परत खुलनी बाकी थी, और वो थी विज्ञान की।
आयुर्वेद में एक कॉन्सेप्ट है 'ऋतु संधि', यानी मौसमों का संगम। नवरात्रि साल में ठीक दो बार इसी ऋतु संधि के समय आती है वसंत और पतझड़। आयुर्वेद के अनुसार, यह वो समय होता है जब शरीर की इम्यूनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता) सबसे कमज़ोर होती है और पाचन शक्ति भी धीमी पड़ जाती है।
इसे ऐसे समझिए, जैसे बारिश से पहले आप अपनी छत की मरम्मत करवाते हैं। ठीक वैसे ही, मौसम बदलने से पहले शरीर को भी 'सर्विसिंग' की ज़रूरत होती है।
और नवरात्रि का उपवास क्या है? यह वही सर्विसिंग है। हल्का, सात्विक भोजन और उपवास शरीर में जमा हुए टॉक्सिंस (आम) को बाहर निकालने और पाचन शक्ति (अग्नि) को फिर से मज़बूत करने का एक तरीका है। हमारे पूर्वज कमाल के 'बायो-हैकर्स' थे! उन्होंने हज़ारों साल पहले अनुभव से जान लिया था कि साल के इन खास समय में कम खाने से शरीर स्वस्थ रहता है। और उन्होंने इस वैज्ञानिक अनुभव को धर्म और rituals के साथ जोड़ दिया, ताकि हर कोई इसे आसानी से फॉलो करे।
तो अगली बार जब कोई उपवास रखे, तो यह मत सोचिए कि वो सिर्फ़ भूखा रह रहा है। वो असल में अपने शरीर को आने वाले मौसम के लिए तैयार कर रहा है। यह एक तरह का बायोलॉजिकल एल्गोरिदम है। कमाल है, है न?
तो, आज हमारे लिए इस कहानी का क्या मतलब है?
हम कहाँ से शुरू हुए थे? एक देवी की कहानी से, जिसे एक रूप बदलने वाले राक्षस से लड़ने के लिए बनाया गया था। और हमने देखा कि कैसे यह त्योहार खुद एक 'शेप-शिफ्टर' निकला। कभी ज़मींदारों की ताक़त का प्रतीक, तो कभी स्वतंत्रता सेनानियों की क्रांति का हथियार। कभी भक्ति का सागर, तो कभी विज्ञान का चमत्कार।
इस पूरी यात्रा का सार यह है कि इस त्योहार का कोई एक फिक्स्ड मतलब नहीं है। दुर्गा की तरह, यह त्योहार भी हर युग के संकट के हिसाब से अपना रूप बदल लेता है।
तो असली सवाल यह नहीं है कि दुर्गा पूजा क्यों मनाई जाती है। असली सवाल यह है कि आज, इस 21वीं सदी में, हमारे समय का महिषासुर कौन है?
क्या वो सोशल मीडिया पर फैली फेक न्यूज़ और नफ़रत है? क्या वो हमारे सिस्टम में फैला भ्रष्टाचार है? क्या वो क्लाइमेट चेंज का खतरा है? या फिर वो हमारे खुद के अंदर बैठा अहंकार, डर और अकेलापन है?
ये सब 'शेप-शिफ्टर' हैं। आप एक झूठ को पकड़ते हैं, तो वो हज़ार नए रूपों में सामने आ जाता है। आप एक समस्या को सुलझाते हैं, तो दस नई खड़ी हो जाती हैं।
दुर्गा की लड़ाई इसी कभी न खत्म होने वाली, रूप बदलने वाली बुराई से है। और उनकी कहानी हमें सिखाती है कि ऐसी लड़ाई सिर्फ़ ताक़त से नहीं, बल्कि शांति, समझदारी और अपनी सारी शक्तियों को एकजुट करके ही जीती जा सकती है।
तो अगली बार जब आप किसी पंडाल में ढाक की आवाज़ सुनें या गरबा की ताल पर झूमें, तो एक पल के लिए रुककर सोचिएगा। सोचिएगा कि आपके अंदर की कौन-सी शक्ति को जगाने का समय आ गया है। आपको और मुझे, इस दौर की लड़ाई जीतने के लिए शक्ति का कौन-सा रूप धारण करना होगा?
शायद इसी सवाल का जवाब खोजना ही आज के ज़माने की सबसे बड़ी पूजा है।
आप क्या सोचते हैं? मुझे ज़रूर बताइएगा।
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