SANATAN DHARMA HISTORY : सनातन धर्म का असली सच जो मैंने जाना
सनातन की वो पहेली, जिसे सुलझाने में शायद एक उम्र लग जाए
यार, एक बात बताओ? क्या आपके घर में भी एक 'पूजा वाला कमरा' या एक छोटा सा कोना है? मेरे घर में था। बचपन की मेरी सबसे धुंधली यादों में से एक है वो कोना। दीये की पीली रोशनी में चमकती देवी-देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियाँ, अगरबत्ती का वो महकदार धुआँ जो पूरे घर में फैल जाता था, और दादी का वो धीमा-धीमा मंत्रोच्चार।
जब भी कोई त्योहार आता, घर में एक अलग ही रौनक होती। पर मेरे छोटे से दिमाग़ में हमेशा एक सवाल घूमता रहता था। मेरी दादी शिवजी की पूजा करती थीं, मेरी माँ दुर्गा जी की कट्टर भक्त थीं, और मेरे पापा हनुमान चालीसा के बिना दिन शुरू नहीं करते थे। और जब कोई मुझसे पूछता कि 'तुम किसे मानते हो?', तो मैं कन्फ्यूज हो जाता था। घरवाले कहते, "बेटा, बोलो हम सनातनी हैं।"
सच कहूँ, तो ये 'सनातनी' शब्द मेरे लिए किसी हॉलीवुड की साइंस-फिक्शन फिल्म के भारी-भरकम शब्द जैसा था। इसका मतलब क्या है? क्या यह कोई सुपरहीरोज की टीम है जिसमें शिव, दुर्गा, हनुमान सब हैं? या यह कोई नियम-कानून की मोटी सी किताब है? ये सवाल मेरे अंदर सालों तक दबे रहे। बाहर की दुनिया में धर्म को लेकर इतनी बहस, इतनी लड़ाइयां, इतनी नफरत देखी कि अपने अंदर के इन सवालों को पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई।
लेकिन यार, सवाल तो सवाल होते हैं। वो दिमाग़ के किसी कोने में मकड़ी के जाले की तरह नहीं पड़े रह सकते। वो एक दिन बाहर आने का रास्ता खोज ही लेते हैं। तो आज, मैं कोई एक्सपर्ट या ज्ञानी बनकर नहीं आया हूँ। मैं तो बस आप ही के जैसा एक जिज्ञासु इंसान हूँ, जिसने अपनी उस बचपन की पहेली को सुलझाने के लिए एक लंबी यात्रा शुरू की है।
इस यात्रा में मुझे जो कुछ मिला - कुछ हैरानी, कुछ गुस्सा, कुछ सुकून और बहुत सारा अपनापन - वही आज मैं आपके साथ बाँटना चाहता हूँ। तो क्या आप मेरे साथ इस टाइम मशीन में बैठकर उस कहानी की जड़ों तक चलने के लिए तैयार हैं? ये सिर्फ़ इतिहास की बात नहीं होगी, ये हमारे और आपके दिल की बात होगी।
पहला पड़ाव: जब दुनिया ख़ामोश थी और दिल सुनता था (आज से 5000 साल पहले)
चलो, एक पल के लिए आज की भागदौड़ भरी, शोर मचाती दुनिया को भूल जाते हैं। कोई ट्रैफिक का हॉर्न नहीं, कोई मोबाइल की नोटिफिकेशन नहीं, कोई टीवी की चिल्ला-चोट नहीं।
आँखें बंद करके उस दुनिया की कल्पना कीजिए। आप सिंधु नदी के किनारे खड़े हैं। हवा में मिट्टी की सौंधी-सौंधी ख़ुशबू है। रात में आसमान इतना साफ़ है कि आप हर एक तारे को गिन सकते हैं। ना कोई मंदिर है, ना कोई मस्जिद, ना कोई चर्च। ना कोई धर्म की दीवार।
उस समय का इंसान आज के इंसान से ज़्यादा 'कनेक्टेड' था। वो प्रकृति से जुड़ा हुआ था। उसने देखा कि सूरज हर सुबह बिना किसी गलती के एक ही दिशा से उगता है और शाम को दूसरी दिशा में डूब जाता है। उसने महसूस किया कि चाँद के घटने-बढ़ने का असर समंदर की लहरों पर होता है। उसने जाना कि एक छोटा सा बीज जब धरती में जाता है, तो बारिश की कुछ बूँदें उसे एक विशाल पेड़ में बदल देती हैं।
उसे यह समझ आया कि यह पूरी कायनात एक नियम, एक लय, एक 'कॉस्मिक ऑर्डर' पर चल रही है। यह एक ऐसा संगीत है जिसे कोई बजा नहीं रहा, पर वो बज रहा है। यह एक ऐसा डांस है जिसे कोई कर नहीं रहा, पर वो हो रहा है।
पता है, यही एहसास, यही कनेक्शन 'सनातन' की पहली सीढ़ी थी। वो शाश्वत सच जो कभी नहीं बदलता। उसे किसी भगवान का नाम देने की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि वो हर जगह था - हवा में, पानी में, आग में, धरती में, और खुद इंसान के भीतर भी।
आज जब हम शहर की घुटन से परेशान होकर किसी हिल स्टेशन पर भाग जाते हैं, या समंदर किनारे बैठकर घंटों लहरों को देखते रहते हैं, तो हमें जो सुकून मिलता है, वो क्या है? वो शायद उसी पुराने, भूले-बिसरे कनेक्शन की एक हल्की सी याद है, जो हमारे डीएनए में आज भी ज़िंदा है। आपका ऐसा कोई 'सुकून वाला कोना' है?
दूसरा पड़ाव: जब प्रकृति की आवाज़ शब्दों में उतरी (वेदों का जन्म)
अब कहानी में एंट्री होती है हमारे 'ऋषि-मुनियों' की। इन्हें किसी चमत्कार करने वाले बाबा की तरह मत सोचिए। ये उस ज़माने के सबसे बड़े 'ऑब्जर्वर' और 'साइंटिस्ट' थे। उनका लैब यह पूरा ब्रह्मांड था।
वो जंगलों में बैठकर घंटों इस कायनात के संगीत को सुनते थे। वो सवाल पूछते थे - मैं कौन हूँ? यह दुनिया क्यों है? मरने के बाद क्या होता है? इन सवालों के जवाब उन्हें किसी किताब में नहीं मिले, बल्कि अपने गहरे ध्यान और प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव में मिले।
उन्होंने जो कुछ भी महसूस किया, जो ज्ञान समझा, उसे अपनी यादों में सहेज लिया। सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि हज़ारों साल तक यह गहरा ज्ञान सिर्फ़ सुनकर और सुनाकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाया गया! आज तो हम अपना फ़ोन नंबर भी बिना देखे याद नहीं रख पाते, है न? इसीलिए इस ज्ञान को ‘श्रुति’ (सुना हुआ ज्ञान) कहा गया।
सदियों बाद, जब इस ज्ञान को कागज़ पर उतारा गया, तो यही वेद कहलाए।
और यहीं पर मुझे मेरी यात्रा का सबसे बड़ा झटका लगा। मैंने हमेशा सुना था कि वेद हमारे धर्म की सबसे पवित्र किताब हैं। मुझे लगता था कि उनमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की बड़ी-बड़ी कहानियाँ होंगी। लेकिन जब मैंने पढ़ना शुरू किया, तो मैं हैरान रह गया!
ऋग्वेद (जो सबसे पुराना है) में तो प्रकृति की शक्तियों की स्तुति है। इंद्र (बारिश और बिजली के देवता), अग्नि (आग के देवता), वरुण (जल के देवता), सोम (एक रहस्यमयी पौधे के देवता)। ये सब वही 'एलिमेंट्स' थे जिन्हें इंसान अपने जीवन का आधार मानता था। यह धर्म से ज़्यादा एक तरह की कविता थी, कायनात के लिए एक 'थैंक यू नोट' था।
यजुर्वेद एक तरह की 'हाउ-टू' गाइड थी, जिसमें यज्ञ कैसे करना है, इसके नियम थे। सामवेद तो समझिए उस दौर का 'साउंडट्रैक' था, जिसमें मंत्रों को कैसे गाना है, यह बताया गया था। और अथर्ववेद... यार, वो तो उस ज़माने की 'लाइफ-हैक' और 'मेडिसिन' की किताब थी! उसमें रोज़मर्रा की ज़िंदगी की मुश्किलें, बीमारियाँ और उनके इलाज के बारे में लिखा था।
कहीं भी मूर्ति पूजा का ज़िक्र तक नहीं था। भगवान का कॉन्सेप्ट वैसा नहीं था जैसा आज हम समझते हैं। यह मेरे लिए एक बहुत बड़ा 'माइंड ब्लोइंग' मोमेंट था।
तीसरा पड़ाव: जब समाज में काम बंटा और फिर... दीवारें बनीं (वर्ण व्यवस्था)
अब यहाँ कहानी में एक ऐसा मोड़ आता है, जिसे समझना बहुत ज़रूरी है और जिसे लेकर मुझे हमेशा एक अजीब सी बेचैनी होती है। जब समाज बड़ा होने लगा, तो उसे व्यवस्थित चलाने के लिए काम का बँटवारा किया गया।
इसे ऐसे समझिए जैसे आज एक बड़ी कंपनी चलती है। उसमें एक CEO होता है जो विज़न तय करता है (ब्राह्मण), मैनेजर्स और सिक्योरिटी होती है जो कंपनी की रक्षा करते हैं (क्षत्रिय), सेल्स और प्रोडक्शन टीम होती है जो व्यापार करती है (वैश्य), और सपोर्ट स्टाफ होता है जो कंपनी को सुचारु रूप से चलाने में मदद करता है (शूद्र)। क्या इनमें से कोई भी एक-दूसरे के बिना काम कर सकता है? नहीं। हर कोई अपनी जगह महत्वपूर्ण है।
शुरुआत में वर्ण व्यवस्था का आइडिया कुछ ऐसा ही था। यह आपके कर्म पर, आपकी स्किल पर आधारित था। वाल्मीकि और विश्वामित्र जैसे कितने ही उदाहरण हैं जिन्होंने अपना वर्ण बदला था। यह एक लचीली व्यवस्था थी।
लेकिन यार, इंसान की फितरत में शायद कहीं न कहीं सत्ता का लालच छिपा होता है। धीरे-धीरे, कुछ लोगों ने इस व्यवस्था को अपनी सहूलियत के हिसाब से बदलना शुरू कर दिया। जो ज्ञान और स्किल पर आधारित थी, वो जन्म पर आधारित हो गई। कर्म की जगह जन्म ने ले ली।
और सच कहूँ, जब मैं यह पढ़ता हूँ तो मेरा दिल दुखता है। सोचकर गुस्सा आता है कि इतने अच्छे और प्रैक्टिकल विचार को कैसे कुछ लोगों के स्वार्थ ने समाज को बांटने वाले एक हथियार में बदल दिया। वो लचीलापन खत्म हो गया और उसकी जगह कठोर दीवारों ने ले ली, जो आज तक हमारे समाज को खोखला कर रही हैं।
आज हम लोगों को कैसे लेबल करते हैं? उनके सरनेम से? उनके कपड़ों से? वो कहाँ रहते हैं, उससे? रूप बदल गया है, पर क्या वो आदत सच में गई है? यह सवाल मैं अक्सर खुद से पूछता हूँ।
चौथा पड़ाव: जब गहरी फिलॉसफी एक प्यारी सी कहानी बन गई (पुराणों का दौर)
समय आगे बढ़ा। यज्ञ और कर्मकांड इतने जटिल और महंगे हो गए कि वो सिर्फ़ राजाओं और अमीर लोगों तक ही सीमित रह गए। एक आम किसान या मज़दूर, जो दिन भर मेहनत करता है, उसे वेदों की गहरी फिलॉसफी या 'ब्रह्म' का निराकार कॉन्सेप्ट कैसे समझ आता?
उसे तो कोई ऐसा चाहिए था जिससे वो अपने दिल की बात कह सके। कोई ऐसा, जो उसके दुख-सुख को समझे।
यह तो वैसा ही है जैसे आप किसी बच्चे को 'गुरुत्वाकर्षण' का नियम समझाना चाहें, तो आप उसे न्यूटन और सेब की कहानी सुनाते हैं। कहानी दिमाग़ में सीधे उतर जाती है।
बस, यहीं से पुराणों का जन्म हुआ। पुराण उस दौर के 'ब्लॉकबस्टर' थे! ऋषियों और ब्राह्मणों ने वेदों के गहरे ज्ञान को सरल, मनोरंजक और इमोशनल कहानियों में बदल दिया। उन्होंने निराकार 'ब्रह्म' को तीन चेहरे दिए: ब्रह्मा (द क्रिएटर), विष्णु (द ऑपरेटर/मैनेजर), और महेश/शिव (द डिस्ट्रॉयर/ट्रांसफॉर्मर)।
यह एक जीनियस आइडिया था! हर भगवान का एक व्यक्तित्व था, एक परिवार था, उनकी अपनी पसंद-नापसंद थी, उनकी अपनी जीत और हार की कहानियाँ थीं। विष्णु के दस अवतार की कहानियाँ आईं, जिन्होंने बताया कि भगवान हर युग में धरती पर आते हैं। शिव के भोलेपन और गुस्से की कहानियाँ आईं। देवियों की शक्ति और करुणा की कहानियाँ आईं।
इन कहानियों ने धर्म को 'एकेडमिक' से निकालकर 'पर्सनल' बना दिया। अब लोग भगवान से डरते नहीं थे, उनसे प्यार करने लगे, उनसे रिश्ता बनाने लगे। मूर्ति पूजा शुरू हुई, क्योंकि अब लोगों के पास अपने भगवान का एक चेहरा था, एक रूप था, जिससे वो अपनी आँखें बंद करके कनेक्ट कर सकते थे।
इसी दौर में बौद्ध और जैन धर्म का भी उदय हुआ, जिन्होंने यज्ञों और कर्मकांडों का विरोध किया और आत्म-ज्ञान का सरल मार्ग दिखाया। यह सनातन धर्म के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती थी। और इस चुनौती का जवाब सनातन धर्म ने और ज़्यादा कहानियाँ गढ़कर, और ज़्यादा भक्ति पर ज़ोर देकर दिया। उसने बुद्ध को भी विष्णु का अवतार बताकर अपने परिवार में शामिल कर लिया! यह धर्म की फ्लेक्सिबिलिटी का एक अद्भुत उदाहरण है।
पाँचवाँ पड़ाव: जब भगवान हमारे हीरो बन गए (रामायण और महाभारत का युग)
पुराणों की कहानियों ने ज़मीन तो तैयार कर दी थी, लेकिन फिर आए दो ऐसे महाकाव्य जिन्होंने इस संस्कृति की आत्मा को हमेशा के लिए बदल दिया - रामायण और महाभारत।
यार, ये सिर्फ़ किताबें नहीं हैं। ये हमारी भावनाओं का आईना हैं।
रामायण ने हमें 'आदर्श' सिखाया। राम एक ऐसे हीरो थे, जो हर बेटे, हर पति, हर भाई और हर राजा के लिए एक मिसाल थे। उन्होंने हमें सिखाया कि 'धर्म' और 'मर्यादा' के लिए कितना बड़ा त्याग करना पड़ सकता है। आज भी जब हम किसी मुश्किल पारिवारिक स्थिति में फँसते हैं, तो कहीं न कहीं राम का जीवन हमें रास्ता दिखाता है, है न?
और अगर रामायण 'आदर्श' की कहानी है, तो महाभारत 'यथार्थ' की कहानी है। यह ज़िंदगी की 'ग्रे' सच्चाई को दिखाती है। इसमें कोई भी किरदार पूरी तरह से सही या पूरी तरह से गलत नहीं है। यह हमें बताती है कि धर्म-अधर्म की लड़ाई बाहर से ज़्यादा हमारे अंदर चलती है। भगवद्गीता, जो इसी का हिस्सा है, आज भी दुनिया की सबसे बड़ी 'सेल्फ-हेल्प' किताबों में से एक मानी जाती है। वो अर्जुन के बहाने हम सबके सवालों का जवाब देती है।
इन महाकाव्यों ने भगवान को हमारे घर का सदस्य बना दिया। राम और कृष्ण अब सिर्फ़ देवता नहीं, हमारे हीरो थे, हमारे बड़े भाई थे, हमारे दोस्त थे।
छठा पड़ाव: जब भक्ति ने सारे नियम तोड़ दिए (भक्ति आंदोलन)
समय के साथ धर्म में फिर से कर्मकांड, जाति-पाति और दिखावा हावी होने लगा। ऐसा लगने लगा कि भगवान सिर्फ़ ऊँची जाति वालों और अमीरों के हैं, और उन तक पहुँचने का रास्ता बहुत मुश्किल है।
तभी भारत में दक्षिण से लेकर उत्तर तक एक ऐसी लहर उठी, जिसने सब कुछ बदल दिया। यह थी 'भक्ति आंदोलन' की लहर।
कबीर, नानक, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास... ये लोग मुझे उस ज़माने के 'रिबेल' या 'रॉकस्टार' लगते हैं! उन्होंने कहा, "अरे भाई! भगवान को पाने के लिए किसी पुजारी, किसी मंदिर या किसी मोटी किताब की ज़रूरत नहीं है। वो तो तुम्हारे दिल में बैठा है, बस उसे सच्चे मन से पुकारने की देर है।"
कबीर ने तो सीधे-सीधे ढोंग पर चोट की, "माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।" मीरा ने महलों को छोड़कर कृष्ण के प्रेम में नाचते-गाते अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी। तुलसीदास ने संस्कृत के वेदों को छोड़कर आम लोगों की भाषा अवधी में रामचरितमानस लिख दी, ताकि हर कोई राम की कहानी को समझ सके, महसूस कर सके।
यह एक आध्यात्मिक क्रांति से कहीं ज़्यादा एक सामाजिक क्रांति थी। इसने धर्म को कुछ लोगों के चंगुल से निकालकर हर इंसान तक पहुँचा दिया। इसने बताया कि भगवान के दरबार में आपकी जाति, आपका लिंग या आपका बैंक बैलेंस कोई मायने नहीं रखता। वहाँ तो सिर्फ़ आपका प्रेम और आपकी श्रद्धा देखी जाती है।
क्या आपने कभी किसी चीज़ के लिए ऐसा जुनून महसूस किया है कि दुनिया क्या कहेगी, इसकी परवाह ही न हो? चाहे वो आपका काम हो, आपका प्यार हो, या आपका कोई सपना हो। बस वही जुनून, वही दीवानगी तो भक्ति है।
और आखिर में... हम 'हिंदू' कैसे कहलाए?
अब आते हैं उस सवाल पर, जो आज की राजनीति का केंद्र बना हुआ है - 'हिंदू' शब्द। आपको यह जानकर शायद सबसे ज़्यादा हैरानी होगी कि यह शब्द हमारे किसी भी वेद, पुराण या ग्रंथ में नहीं है।
यह नाम हमें दूसरों ने दिया है। सदियों पहले, जब ईरान (पारस) के लोग भारत आए, तो उन्होंने सिंधु नदी के इस पार रहने वाले लोगों को 'हिंदू' कहा, क्योंकि उनकी भाषा में 'स' का उच्चारण 'ह' होता था। यह एक धार्मिक शब्द नहीं, बल्कि एक ज्योग्राफिकल पहचान थी। जैसे हम जापान के लोगों को जापानी और अमेरिका के लोगों को अमेरिकी कहते हैं।
धीरे-धीरे, बाहर से आने वाले सभी आक्रमणकारी - अरब, तुर्क, मुग़ल - हमें इसी नाम से बुलाने लगे। और हज़ारों सालों में, यह बाहरी पहचान हमारी अपनी पहचान बन गई। जिस धर्म की कोई एक परिभाषा नहीं थी, कोई एक किताब नहीं थी, कोई एक पैगंबर नहीं था, उसे 'हिंदू धर्म' का एक नाम मिल गया।
तो, इस लंबे सफर के बाद मैं कहाँ पहुँचा?
वो 'सनातनी' शब्द, जो बचपन में मेरे लिए एक भारी-भरकम पहेली था, आज मुझे एक खुले आसमान की तरह लगता है। यह कोई बंद कमरा नहीं है जिसकी एक दीवार, एक छत और एक दरवाज़ा हो। यह तो एक बहती हुई नदी है, जिसने हज़ारों सालों में अपने अंदर अनगिनत धाराओं को मिलाया है।
इसने प्रकृति की पूजा से शुरुआत की, फिर वेदों के गहरे ज्ञान को समझा, फिर पुराणों की कहानियों में भावनाओं को घोला, महाकाव्यों में आदर्श और यथार्थ को जिया, और भक्ति आंदोलन में प्रेम को ही अपना सार बना लिया। यह हर चुनौती के साथ बदला है, विकसित हुआ है, और शायद आगे भी हमेशा बदलता रहेगा।
इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि यह आपको कोई 'उत्तर' नहीं देता, बल्कि आपको सही 'सवाल' पूछने के लिए प्रेरित करता है।
तो अंत में, सवाल यह नहीं है कि आप किस भगवान को मानते हैं या किस मंदिर में जाते हैं।
असली सवाल यह है: आपकी अपनी खोज क्या है? आपकी अपनी यात्रा कहाँ ले जा रही है?
क्योंकि सनातन की असली कहानी किसी किताब में नहीं, आपके और मेरे दिल की धड़कनों में ज़िंदा है।
इस बारे में आप क्या सोचते हैं? इस यात्रा में आपका अनुभव कैसा रहा? मुझे कमेंट्स में पढ़कर बहुत अच्छा लगेगा। चलिए, बात करते हैं।
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